उत्तराखंड

नदियां बनती नाले, हरे भरे खेत खलियान बन गए कंक्रीट के जंगल

देहरादून। हम बात कर रहे हैं एक शांत हरी भरी नदियो से घिरी हुयी उस घाटी की जिसे दून वैली के नाम से जाना जाता था। यह शहर गुरू राम राय के द्वारा बसाया गया था। उस समय इसे डेरादून के नाम से जाना जाता था, लेकिन समय के साथ-साथ डेरा देहरा हो गया और शहर का नया नामकरण देहरादून हुआ। इस शहर की आदि अनादि काल से ही विशेष पहचान रही है। देहरादून को द्रोण नगरी भी कहा जात है इसके पीछे कहानी है कि यहां गुरू द्रोणाचार्य ने तपस्या की थी। उनकी तपस्या और अश्वथामा की जिद के चलते भोले बाबा को दर्शन देने पडे थे, जिस स्थान पर भोले बाबा ने दर्शन दिए थे वह तमसा नदी के किनारे टपकेश्वर मंदिर के रूप में जाना जाता है। बात केवल इतनी है कि जिस स्थान पर गुरू द्रोणाचार्य ने तपस्या की थी, वह कभी जंगल हुआ करता था और जहां गुरू राम राय जी ने डेरा डाला था वह भी हरा भरा क्षेत्र था। जहां नदियां भी कल-कल करती हुयी बहा करती थी। आज यह देहरादून कंक्रीट के जंगल में बदल चुका है। जिस शहर में कभी पंखे नही चला करते थे, वहां अब ए.सी. तक फेल हो चुके हैं। जो शहर सेवानिवृत्त लोगो के सपनो के घरो को पूरा करता था, आज वही शहर बिल्डरो की काली दृष्टि से घिर चुका है। वर्ष 2000 के बाद शहर को मानो विकास के नाम पर विनाश की नजर लग गयी। नदियां जहां नालो का रूप ले चुकी वहीं कैनाल सडको के नीचे नालियो के रूप में बह रही है। जो कैनाल कभी जलापूर्ति का महत्वपूर्ण संसाधन होती थी वह कैनाल वर्तमान के साथ ही आने वाली पीढ़ियो के लिए किस्से कहानियांे का हिस्सा बन गयी। ईस्ट कैनाल में द्वारिका स्टोर के पास जो पनचक्कियां होती थी वह अब इतिहास का हिस्सा बन चुकी है। खेत खलियान मानो दून में कभी हुआ ही नही करते थे जबकि देहरादून की आम, लीची, बासमती चावल, चायपत्ती विशेष पहचान रह चुकी है। आज विकास के नाम पर सरकारो ने शहर में जो विनाश की लीला रची वह 42 डिग्री तापमान ने जगजाहिर कर दी। यह रिकार्ड तापमान है। इतना तापमान देहादून में कभी नही हुआ। सरकार विनाश की लीला को विकास का नाम दे रही है। सडको के चैडीकरण के नाम पर अंधाधूंध वृक्षो को काटा गया जो अब भी जारी है। नदियो के किनारे अवैध बस्तियां बसा दी गयी जिन्होने नदियों को नालो में परिवर्तित कर दिया। इन बस्तियो को बचाने के लिए भारी भरकम पुश्ते इस प्रकार बनाये गये कि नदियो के पानी को जमीन ने सोखना तक बंद कर दिया जिसका नुकसान यह हुआ कि जमीन जलविहीन होने लगी। जमीन नदी के जल को सोखने की क्षमता लगभग खोती जा रही है। यदि यही हाल रहा तो आने वाले 100 साल बाद देहरादून वास्तव में इतिहास का पन्ना बनकर रह जाएगा। इसका हाल एनसीआर, दिल्ली, मुंबई से भी बद से बदत्तर हो जाएगा। जिन बिल्डरो ने दिल्ली, मुंबई का नाश किया अब वह हरे भरे देहरादून को उजाड कर किसी दूसरे शहर में विनाश की लीला रचने पहुंच जायेंगे लेकिन क्या हम फिर दोबारा उस द्रोणघाटी को बना पायेंगे जो ऋषि मुनियो की तपस्थली हुआ करती थी। अब भी वक्त है यदि नही संभले तो वास्तव में ‘एक था देहरादून’ पढ़ने के लिए तैयार होना पडेगा।

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